उन्नीसवाँ सूक्त

 

ज्ञान-प्रकाशक रश्मि और विजयशील संकल्पका सूक्त

 

 [ यहाँ आत्माके उस आविर्भावका गान गाया गया है जिसमें उसकी उच्चतर भूमिकाओंके सभी आवरणोंका भेदन किया जा चुका है और वे दिव्य प्रकाशकी ओर उद्घाटित हो गई हैं । यह हमारी सत्ताके सम्पूर्ण तीसरे स्तरका उद्घाटन है जो पहले एक दुर्ग-रक्षित नगर था जिसके द्वार जड़प्रकृतिके अन्दर देहबद्ध आत्माके लिये बन्द थे । भागवत शक्तिकी इस नयी क्रियासे मानसिक और भौतिक चेतना उच्च अतिमानसिक चेतनाके साथ परिणय-सूत्रमें ग्रथित हो गई हैं जो अभीतक उनसे पृथक् थी; जीवन-शक्ति अपने कार्योंमें दिव्य सूर्यके तारासे देदीप्यमान होती हुई दिव्य ज्ञानके सूर्यकी रश्मिकी क्रीड़ाके साथ समस्वर हो गई है  । ]

अभ्यवस्था: प्र जायन्ते प्र वव्रेर्वविश्चिकेत ।

उपस्थे मातुर्विचष्टे ।।

 

( अवस्था: अभि प्र जायन्ते) भूमिकापर भूमिकाका जन्म हुआ है, (वव्रि: वव्रि:) आवरण-पर-आवरण ( प्र चिकेत) ज्ञानकी चेतनाकी ओर खुल गया है । ( मातु: उपस्थे) अपनी माँ1की गोदमें ( विचष्टे) [ आत्मा ] देखता है2

जुहुरे विचितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति ।

आ दृळहां पुरं विविशुः ।।

 

( विचितयन्त:) सबको अपने अन्दर समा लेनेवाले ज्ञानकी ओर जाग्रत् मनुष्य तुझमें (जुहुरे) हवि डालते हैं । ( अनिमिषं नृम्णं पान्ति) वे नित्य-जागरूक मानवत्वकी रक्षा करते हैं और (दृळहाम् पुरम् आ विविशु :) दुर्गवत् दृढ़ नगरके अन्दर प्रवेश करते हैं ।

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1. अदिति-अनन्त चेतना, सब पदार्थोंकी माता ।

2. अनन्त अतिमानसिक चेतनाके सर्वालिङ्गी अंतर्दर्शनके साथ ।

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आ श्वैत्रेयस्य जन्तवो द्युमद् वर्धन्त कृष्टय: ।

निष्कग्रीवो बृहदुक्थ एना मध्वा न वाजयुः ।।

 

(जन्तव:) जो मनुष्य संसारमें पैदा हुए हैं और (कुष्टय:) कर्ममें यत्नशील हैं वे (श्वैत्रेयस्य) श्वेत ज्योतिवाली माँ1के पुत्रकी (द्युमत्) तेजोमय अवस्थाका (आ वर्धन्त) संवर्धन करते हैं । (निष्क-ग्रीव:) वह सोनेका हार्द2 पहनता है, (बृहत्-उक्थ:) वह विशाल शब्दका उच्चारण करता है, (एना) उसके द्वारा और (मध्वा न) मानो आनन्दकी मधुमयी मदिराके द्वारा वह (वाजयुः) ऐश्वर्य-परिपूर्णताका अभिलाषी बन जाता है ।

प्रियं दुग्धं न काम्यमजामि जामयोः सचा ।

धर्मो न वाजजठरोऽदब्धः शश्वतो दभ: ।।

 

वह (प्रियं काम्यं दुग्धं न) माँके प्रिय और कामना करने योग्य दूध3की तरह है । वह (अजामि) बिना किसी साथी4के है, तो भी वह (जाम्यो: सचा) दो साथियोंके साथ रहता हैं, वह (घर्म:) प्रकाशकी गर्मी है और (वाज-जठर:) ऐश्वर्य-परिपूर्णताका उदर हैं । वह (अदब्ध: शश्वत:) अजेय सनातन सत्ता है जो (दभ:) सब वस्तुओंको अपने पैरोंके नीचे कुचल डालती है ।

क्रीळन् नो रश्म आ भुवं: सं भस्मना वायुना वेविदान: ।

ता अस्य सन् धृषजो न तिग्मा: सुसंशिता वक्ष्यो वक्षणेस्था: ।।

 

(रश्मे) हे किरण ! (नः भुवः) हममें पैदा हो और (क्रीळन्) क्रीड़ा करते हुए निवास कर, (भस्मना वायुना सं वेविदान:) अपने ज्ञानको

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1.  अदिति; उसकी अन्धकार-पूर्ण अवस्था या उसका काला रूप है

    दिति, अन्धकारकी शक्तियोंकी माता ।

2.  सत्यके दिव्य सूर्यकी रश्मियोंका हार ।

3.  अदिति-रूपी गौका दूध ।

4.  सबका सर्जन करनेवाला और स्वयपूर्ण अतिमानस जो ऊर्ध्व और

   दूरस्थ हैं और हे हमारी चेतनामें मानसिक और भौतिक स्नरोंसे पथक्;

   तो भी वस्तुत: वह वहाँ उनकी एक दूसरेपर क्रिया-प्रतिक्रियाके पीछे

   विद्यमान है । मनुष्यकी मुक्त अवस्थामें यह पृथक्ता मिट जाती है ।

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विजयशील संकल्पका सूक्त

 

देदीप्यमान जीवन-देवता वायुके साथ समस्वर करते हुए निवास कर । (अस्य ता:) संकल्पकी ये ज्वालायें जो (वक्ष्य:) हमारे कर्मोंको बहन करती हैं, (धृषज:) प्रचंड, (तिग्मा:) तीव्र और (सुसंशिता: सन्) पूर्ण-प्रखर रूपसे तीक्ष्ण हों । वे (वक्षणे-स्था:) सब वस्तुओंके वाहकमें दृढ़ताके साथ स्थापित हों ।

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